इस पुस्तक में अपरा और परा विद्या के रूप में अनात्म तथा आत्म-तत्त्व का विश्लेषण है। कारिका और शांकरभाष्य के सहित यह पुस्तक अद्वैत सिद्धान्त का प्रथम निबन्ध कहा जाता है। इस ग्रंथ के आधार पर भगवान् शंकराचार्य ने अद्वैत मन्दिर की स्थापना की थी।